संत ज्ञानेश्वर का जन्म 1275 ई. में
महारास्ट्र के अहमदनगर ज़िले में पैठण के पास आपेगाँव में भाद्रपद के कृष्णा पक्ष
की अस्थ्मी को हुआ था । इनके
पिता का नाम विट्ठल पंत तथा माता का नाम रुक्मिणी बाई था । संत
ज्ञानेश्वर के पूर्वज पैठण के पास गोदावरी तट के निवासी थे और बाद में (आलंदी) नमक
गाँव में बस गए थे ।
ज्ञानेश्वर के पितामह 'त्र्यंबक पंत' गोरखनाथ
के शिष्य और परम भक्त थे। ज्ञानेश्वर के पिता विट्ठल पंत इन्हीं त्र्यंबक पंत के
पुत्र थे। विट्ठल पंत बड़े विद्वान और भक्त थे। उन्होंने देशाटन करके शास्त्रों का
अध्ययन किया था। उनके विवाह के कई वर्ष हो गए थे पर कोई संतान नहीं हुई। इस पर
उन्होंने संन्यास लेने का निश्चय किया, पर
स्त्री इसके पक्ष में नहीं थी। इसलिए वे चुपचाप घर से निकलकर काशी में स्वामी
रामानंद के पास पहुँचे और यह कहकर कि संसार में मैं अकेला हूं, उनसे
संन्यास की दीक्षा ले ली।
कुछ समय बाद
स्वामी रामानंद दक्षिण भारत की यात्रा
करते हुए आलंदी गाँव पहुँचे। वहाँ जब विट्ठल पंत की पत्नी ने उन्हें प्रणाम किया, तो
स्वामी जी ने उसे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया। इस पर विट्ठल पंत की पत्नी रूक्मिणी बाई
ने कहा- मुझे आप पुत्रवती होने का
आशीर्वाद दे रहे हैं, पर मेरे पति
को तो आपने पहले ही संन्यासी बना लिया है। इस
घटना के बाद स्वामी जी ने काशी आकर विट्ठल पंत को फिर गृहस्य जीवन अपनाने की आज्ञा दी। उसके बाद ही उनके तीन
पुत्र और कन्या पैदा हुई। ज्ञानेश्वर
इन्हीं में से एक थे। संत ज्ञानेश्वर के दोंनों भाई 'निवृत्तिनाथ' एवं 'सोपानदेव' भी
संत स्वभाव के थे। इनकी बहिन का नाम 'मुक्ताबाई' था।
संन्यास
छोड़कर गृहस्थ बनने के कारण समाज ने ज्ञानेश्वर के पिता विट्ठल पंत का बहिष्कार कर दिया। वे कोई भी प्रायश्चित
करने के लिए तैयार थे, पर शास्त्रकारों ने बताया कि उनके लिए देह त्यागने
के अतिरिक्त कोई और प्रायश्चित
नहीं है और उनके पुत्र भी जनेऊ
धारण
नहीं कर सकते। इस पर विट्ठल पंत ने प्रयाग में त्रिवेणी
में जाकर अपनी पत्नी के साथ संगम में डूबकर प्राण दे दिए। बच्चे अनाथ हो गए। लोगों ने उन्हें गाँव के
अपने घर में भी नहीं रहने दिया। अब उनके
सामने भीख माँगकर पेट पालने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं रह गया।
बाद के दिनों
में ज्ञानेश्वर के बड़े भाई निवृत्तिनाथ की गुरु गैगीनाथ से भेंट हो गई। वे विट्ठल पंत के गुरु रह चुके थे।
उन्होंने निवृत्तिनाथ को योगमार्ग की
दीक्षा और कृष्ण उपासना
का उपदेश दिया। बाद में निवृत्तिनाथ ने ज्ञानेश्वर को भी दीक्षित किया। फिर ये लोग पंडितों से शुद्धिपत्र लेने
के उद्देश्य से पैठण पहुँचे। वहाँ रहने के
दिनों की ज्ञानेश्वर की कई चमत्कारिक कथाएँ प्रचलित हैं। कहते हैं, उन्होंने
भैंस के सिर पर हाथ रखकर उसके मुँह से वेड मंत्रो का उच्चारण
कराया। भैंस को जो डंडे मारे गए, उसके निशान
ज्ञानेश्वर के शरीर पर उभर
आए। यह सब देखकर पैठण के पंडितों ने ज्ञानेश्वर और उनके भाई को शुद्धिपत्र दे दिया। अब उनकी ख्याति अपने गाँव
तक पहुँच चुकी थी। वहाँ भी उनका बड़े
प्रेम से स्वागत हुआ।
पंद्रह वर्ष
की उम्र में ही ज्ञानेश्वर कृष्णभक्त और योगी बन चुके थे। बड़े भाई निवृत्तिनाथ के
कहने पर उन्होंने एक वर्ष के अंदर ही भगवतगीता पर टीका लिख डाली। ‘ज्ञानेश्वरी’ नाम
का यह ग्रंथ मराठी भाषा का
अद्वितीय ग्रंथ माना जाता है। यह ग्रंथ 10,000 पद्यों में
लिखा गया है। यह भी
अद्वैत-वादी रचना है, किंतु यह योग
पर भी बल देती है। 28 अभंगों की इन्होंने 'हरिपाठ' नामक
एक पुस्तिका लिखी है, जिस पर
भागवतमत का प्रभाव है। भक्ति
का
उदगार इसमें अत्यधिक है। मराठी संतों में ये प्रमुख समझे जाते हैं। इनकी कविता दार्शनिक तथ्यों से पूर्ण है तथा
शिक्षित जनता पर अपना गहरा प्रभाव
डालती है। इसके अतिरिक्त संत ज्ञानेश्वर के रचित कुछ अन्य ग्रंथ हैं- ‘अमृतानुभव’, ‘चांगदेवपासष्टी’, ‘योगवसिष्ठ
टीका’ आदि।
ज्ञानेश्वर ने उज्जयिनी, प्रयाग,काशी, गया,विन्दावन, द्वारका, पंडरपुर आदि तीर्थ स्थानों की यात्रा
की। संत ज्ञानेश्वर की मृत्यु 1296 ई. में हुई।
इन्होंने मात्र 21 वर्ष की उम्र
में इस नश्वर संसार का परित्यागकर समाधि ग्रहण कर ली।
" समाप्त "
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